एक बार अचानक देवराज इंद्र के हाथी ऎरावत को न जाने क्या जुनून सवार हुआ कि उसने खाना-पीना बंद कर दिया। क्रोध के मारे जैसे वह पागल हुआ जा रहा था। महावत ने उसे पुचकारा, तो ऎरावत सूंड़ ऊपर उठा कर चिंघाड़ा। उसने महावत को पकड़ने के लिए सूंड़ हवा में घुमाई। महावत पहले ही ऎरावत के मिजाज को भांप गया था, इसलिए वह तेजी से पीछे हट गया और भागा-भागा देवराज इंद्र के पास आया।
इंद्र उस समय कहीं जाने की तैयारी कर रहे थे। उन्होंने पहले ही संदेश भेज दिया था कि ऎरावत को खिला-पिलाकर लाया जाए। महावत को घबराया देख, इंद्र बोले- 'क्यों, क्या बात है? महावत ने विनम्रता से कहा-"प्रभु! ऎरावत अचानक मदोन्मत हो गया है। बहुत प्रयत्न करने पर भी बस में नहीं आ रहा।'
इंद्र बोले-' ऎसा क्या कारण हो सकता है? आज तक तो ऎसा हुआ नहीं। वैसे भी ऎरावत समुद्र मंथन से प्राप्त रत्नों में से एक है। उसकी उत्पति ही हमारे लिए हुई है। उसके आहार-पानी में तो कोई कमी नहीं रह गई?'
महावत बोला-'देवराज! नित्य नियमानुसार आज भी समय पर उसे आहार-पानी दिया गया, मगर उसने छुआ तक नहीं। आप स्वयं चलकर देख लें। ठीक है, मैं स्वयं ही चलता हूँ। यह कहकर इंद्र उठे और ऎरावत को देखने चल पड़े। वहाँ जाकर उन्होंने देखा, ऎरावत उन्मत होकर झूम रहा है। निकट जाकर इंद्र ने स्वयं हाथी को पुचकारा। मगर आश्चर्य! इंद्र को देखकर ऎरावत और क्रोध में भर उठा। वह बेकाबू होता जा रहा था।
यह देखकर एक देव ने इंद्र से कहा-'महाराज, आप स्वयं उसके ऊपर सवारी करें। शायद यह अंकुश से वश में आ जाए।' 'हो सकता है।' कहते हुए इंद्र हाथी पर सवार होने को आगे बढे, मगर यह क्या! ऎरावत ने सिर हिलाकर इंकार कर दिया। फिर उसे वश में लाने के कई उपाय किए गए, मगर वह वश में न आ सका।
इंद्र परेशान और सभी आश्चर्य में थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था-'आखिर ऎरावत को हुआ क्या। मुझे भी सवारी के लिए इंकार क्यों कर रहा है?' इंद्र इस्सी चिंता में पड़े थे, उसी समय उनके कानों में 'नारायण-नारायण! की शब्द ध्वनि सुनायी दी और वीणा लिए, हरि गुणगाण करते देवर्षि नारद इंद्र के सामने आ गए। इंद्र ने नारद का अभिनंदन किया।
नारद जी ने इंद्र को देखा, फिर हंस कर बोले-'किस चिंता में पड़े हैं देवराज? कहीं असुरों ने सुरपुर पर आक्रमण तो नहीं कर दिया या कोई कौतुक हुआ है। अरे यह ऎरावत बार-बार क्यों चिंघाड़ रहा है।'
इंद्र ने अपनी व्यथा-कथा बताते हुए कहा-'हाँ देवर्षि! ऎरावत अस्वस्थ हो गया है। मगर इसकी अस्वस्थता शारीरिक नहीं, मानसिक है। यह स्वर्ग के सारे नियमों को तोड़, मुझे सवारी कराने से इंकार कर रहा है। क्या आप बता सकते हैं, यह ऎसा क्यों कर रहा है?
नारद जी बोले-'हाँ, देवराज! इसे अपने पूर्वजन्म की याद आ गई है। उसी के कारण इसके मन में पुराना द्वेष उभर आया है। इसका विवेक खो गया है। इसकी यही नासमझी इसके क्रोध और आपके दुख का कारण बन रही है।'
नारद की बात सुनकर इंद्र आश्चर्य से बोले-'अच्छा! आखिर ऎसा क्या हुआ? क्या वृतांत है इसके पूर्वजन्म का?' नारद जी बताने लगे-'पूर्वकाल में त्रिशला नामक नगरी में एक विद्वान का आगमन हुआ। उनका नाम विश्वबंधु था। पंडित बंधु धर्मशास्त्र, वेद-पुराण आदि के प्रकांड विद्वान थे। उनकी जिह्वा पर जैसे सरस्वती विराजती थी।
उनकी वाणी में इतनी मिठास और ओज था कि उनके प्रवचन सुनकर श्रोता मंत्र मुग्ध हो उठते थे। नगरवासी बड़ी संख्या में उनका प्रवचन सुनने आते थे। स्वयं राजा भी नित्य आकर पंडित जी की कथा सुनते थे। उसी नगर में वीरसेन नाम के एक सद्गृहस्थ थे। वह बहुत ही धर्मप्रिय थे। ज्यादातर समय पूजा-पाठ में बिताते थे।
वीरसेन भी चाहते थे कि किसी दिन जाकर पंडित जी की कथा सुनें, मगर जप-तप से समय ही नहीं बच पाता था। एक दिन पंडित जी के एक चेले ने उनसे कहा-'गुरुजी, पूरे नगर में आपकी कथा की चर्चा है। सभी नगरवासी आपके ज्ञान की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे हैं। आप धन्य हैं।'
पंडित जी अपनी प्रशंसा सुन, फूल कर कुप्पा हो गए। उनके मन में अहंकार कुलांचे भरने लगा। वे गर्व से बोले-'क्यों नहीं, क्यों नहीं! मेरे जैसे शास्त्रज्ञ विद्वान की कथा तो अपूर्व होगी ही। फिर मेरी कथा शैली की सरलता तो सभी को आकर्षित करेगी ही।
यह सुनकर चेला बोला-'क्षमा करें गुरुजी, जब तक आपकी कथा सुनने वीरसेन नहीं आते, आपकी कथा अधूरी ही मानी जाएगी।' ऎसी बात है। तब वीरसेन को कल ही बुलवा लेता हूँ। जिसकी कथा सुनने राजा आए, उनकी कथा में वीरसेन आने से कैसे इंकार कर सकता है।' पंडित जी ने घमण्ड से कहा। फिर तुरंत एक दूसरे चेले को वीरसेन के घर भेज दिया।
वीरसेन का मन छल-प्रपंच से दूर था। उन्होंने आने को कह तो दिया, मगर उस दिन उनका व्रत था। पूजा-पाठ में देरी हो गई, इसलिए कथा में न जा सके। कथा पूरी हुई। चेले ने पंडित जी के कान में कहा-'देखा, आपके बुलाने पर भी वीरसेन नहीं आए। लगता है वह आपको विद्वान नहीं मानते। आपको अपनी विद्वता का सिक्का जमाना है, तो वीरसेन का सिर झुकाना ही होगा।
ठीक है, मैं समझ गया। अब कुछ न कुछ करना ही पड़ॆगा। पंडित जी के हृदय में द्वेष की ज्वाला भड़क उठी। कथा में वह रोज ही राग-द्वेष और अभिमान से दूर रहने की दूसरों को शिक्षा देते थे, मगर आज स्वयं उनको भूल गए।
बदले की आग में जलते हुए सर्प की तरह फुंकार उठे। अगले दिन कथा पूरी होने पर राजा ने आकर पंडित जी से आग्रह किया-'आप कल भोजन के लिए राजमहल को पवित्र करें।'
यह सुनकर पंडित जी की बांछें खिल उठीं। वे मन ही मन बोले-'कार्य सिद्ध हो गया। फिर राजा से बोला-'महाराज, आपका निमंत्रण तो मैं स्वीकार कर लूंगा, मगर मेरी एक शर्त है। आप पूरी करने का वचन दें, तभी मैं भोजन करने आ सकूंगा।'
राजा सोचने लगे-'पंडित जी ज्यादा से ज्यादा कोई रत्न मांग लेंगे या फिर स्वर्ण मुद्राओं की थैली।' यही सोचकर राजा ने पंडित जी की बात मान ली। फिर कहा- "पंडित जी, आप क्या कहना चाहते हैं?"
पंडित जी बोले- "महाराज, आपकी नगरी में वीरसेन नाम का एक व्यक्ति है। मैं चाहता हूँ जब मेरी पालकी राजमहल के द्वार पर रुके, तो मैं महल के अंदर वीरसेन की पीठ पर सवार होकर जाऊं।"
पंडित जी की बात सुनकर राजा चौंक पड़े। वह वीरसेन को जानते थे। बोले-'आप उन जैसे साधु को यह कष्ट क्यों देना चाहते है? चाहें तो मेरी पीठ पर सवार हो जाएं। मैं उन्हें यह करने के लिए कैसे कहूँगा? पंडित जी तो मन में ठान ही चुके थे। राजा के बार-बार कहने पर भी वह अपनी बात पर अड़े रहे। राजा समझ गए कि होनी अपना खेल दिखा रही है।
इन जैसे ज्ञानवान की मति भ्रष्ट हो गई है। विद्वान के मन में घमंड हो जाए तो उसका सर्वनाश कर देता है। विद्या तो विनय देती है। सोचकर राजा ने कहा-'ठीक है।'
दूसरे दिन राजा ने वीरसेन को बुलावा भेजा। उनके आने पर राजा ने बड़े संकोच से पंडित जी को दिए वचन की बात बताई। वीरसेन ने मुस्कराकर कहा-'राजन, यह तो मेरा सौभाग्य होगा। विश्वबंधु जैसे विद्वान को पीठ पर बैठाकर मेरा जीवन सफल हो जाएगा। मैं आपका आभारी रहूंगा।'
सुनकर राजा भी पानी-पानी हो गए। निश्चित समय पर विश्वबंधु की पालकी महल के द्वार पर आई। वीरसेन और राजा वहाँ थे। विश्वबंधु ने पालकी से उतर कर कहा- 'कहाँ है वीरसेन सवारी के लिए? वीरसेन ने सिर झुका कर कहा-"आइए पंडित जी, मैं सेवा के लिए तैयार हूँ।'
बिना आगा-पीछा सोचे, उचित-अनुचित का विचार किए, पंडित जी वीरसेन की पीठ पर सवार होकर भोजनालय में पहुँचे। रास्ते भर वह सोचते रहे-'आखिर मैंने इसका मान मर्दन कर ही दिया।' अपनी कहानी समाप्त करते हुए नारद जी बोले- 'देवराज, विश्वबंधु पंडित को उनकी करनी का फल भुगतना पड़ा।
विद्या, ज्ञान और भगवान की कथा का ज्ञाता होने के फलस्वरूप उन्हें मोक्ष का अधिकार होना चाहिए था, किंतु द्वेष और अभिमान ने उनके सारे किए पर पानी फेर दिया। वही पंडित जी ऎरावत हाथी के रूप में आज स्वर्ग का क्षणिक सुख भोग रहे हैं।
सद्गुणॊं के कारण वीरसेन आज स्वर्ग के राजा इंद्र बने हैं। विश्वबंधु ने वीरसेन के ऊपर सवारी की थी, उसका फल भोगने के लिए यह हाथी बनकर आज पूर्वजन्म के वीरसेन, इंद्र की सवारी के काम आ रहा है। पूर्वजन्म की बात याद आने पर इसका घमंड फिर जाग उठा है, इसलिए प्रतिकार कर रहा है। आप कहें तो मैं इससे कुछ कहूँ।'
इंद्र की स्वीकृति मिलने पर नारद ने ऎरावत की ओर देखा। नारद जी ने आगे बढकर ऎरावत के कान के पास जाकर कहा-'पिछले जन्म में जो किया, क्या उसे भूल गए? फिर अपने कर्तव्य से मुंह मोड़कर अगले जन्म को बिगाड़ने पर क्यों तुला है?
यह सुनना था कि ऎरावत का सारा नशा काफूर हो गया। उसने उछल-कूद बन्द कर दी । फिर सिर झुका कर इंद्र की सवारी के लिए तैयार हो गया । इंद्र ने मुस्कुराकर नारद जी की ओर देखा । मगर नारद जी बिना कुछ कहे 'नारायण हरि . . . नारायण हरि' कहते अपने रास्ते पर आगे बढ़ गए । |