निन्दक मेरा घोबिया, मेल धोवे चित्त लाय ।
औरन को निर्मल करे, आप नरके जाय ।।
बहुत दिन हुए एक राज्य में एक महात्मा जी रहते थे वे बड़े अनुभवी और आदर्श पुरुष थे | वह राज्य बड़ा सम्पन्न और सुखी था । लोग अपने जीवन यापन में व्यस्त रहा करते थे । एक दिन महात्मा भिक्षा हेतु राजा के दरबार में पहुँच गये । राजा अपने अहंकार में सत व्यवहार का विचार भूल चुका था, उसने अपनी छुद्र बुद्धि से आज्ञा दिया कि इस मोटे साधू को पकड़ लो और इसके मुह में घोड़े की लीद भर दो।
नोकर तो आज्ञांकारी होते हैं उन्हें कुकर्म सुकर्म से क्या ? महात्मा जी को पकड़कर उनके मुँह में लीद जबरदस्ती भर दी । महात्मा बड़े सहनशील और उपकारी होते हैं इतना अत्याचार भी सहकर चुपचाप चले गये । जब उन्होंने कोई क्रोध भाव नहीं व्यक्त किया तो राजा के मन में बड़ी व्यग्रता हुई कि हो न हो ये कोई पहुँचे हये महात्मा हैं । अब तो मेरा बड़ा अनिष्ट होगा तो राजा ने राज्य के सभी हर कि विद्वान और ज्योतिषी लोगों की एक सभा की और उनसे अपना वृत्तान्त कह सुनाया। अब राजा ने अपने इस कर्म का फल जानना चाहा । विद्वान ज्योतिषी लोगों ने विचार करके दिव्य चक्षु से देखकर बताया कि “'महाराज, आपके खाने हेतु लीद का अम्बार लग गया है और अब तो वह आपको खानी ही पड़ेगी । |