जय गुरु देव
समय का जगाया हुआ नाम जयगुरुदेव मुसीबत में बोलने से जान माल की रक्षा होगी ।
परम सन्त बाबा उमाकान्त जी महाराज, उज्जैन (मध्य प्रदेश)
पुतली त्रिनेत्री की कथा (Putli Trinetri Ki Katha)

तीसवें दिन प्रातः उठ कर राजा भोज को पिछले दिनों की तरह सिंहासन का मोह फिर सताने लगा। स्नानादि से निवृत्त होकर वे राजदरबार पहुंचे और जैसे ही सिंहासन की ओर बढे सिंहासन से तीसवीं पुतली हंसती हुई उनके सामने प्रकट होकर बोली-रुक जाओ राजा भोज! पहले मेरे मुख से विक्रमादित्य के त्याग की यह कथा सुनने के बाद ही तुम निर्णय करना कि क्या तुममें उन जैसा त्याग है? अगर है तो तुम इस सिंहासन पर बैठने के अधिकारी हो अन्यथा नहीं।'यह कहकर पुतली राजा भोज को यह कथा सुनाने लगी-

"एक बार राजा विक्रमादित्य के राजदरबार में स्वर्ग और पाताल के राजाओं के दरबारों की चर्चा चल पड़ी। कोई स्वर्ग के राजा के दरबार की प्रशंसा करता था, कोई पाताल के राजा के दरबार की और कोई विक्रमादित्य के दरबार की। विक्रमादित्य बड़ी खामोशी से दरबारियों की बातें बड़े ध्यान से सुन रहे थे। यह सब सुनकर वे विचारों में डूब गए। कुछ देर बाद उन्होंने सोच-विचार कर कहा-"यह तो बहुत से लोगों को मालूम है कि स्वर्ग के राजा का नाम इन्द्र है, लेकिन क्या यह भी किसी को मालूम है कि पाताल के राजा का क्या नाम है?"

यह सुनकर एक विद्वान ने खड़ा होकर कहा-"महाराज पाताल के राजा का नाम शेषनाग है। वह बड़े प्रतापी और तेजस्वी हैं। वे भगवान विष्णु के सेवक हैं, वे बड़े ऎश्वर्य के साथ अपने महल में रहते हैं। उनका स्थान किसी देवता से कम नहीं है। उनका दर्शन करना, भगवान के दर्शन करने के सामान है।"

यह सुनकर विक्रमादित्य के मन में पाताल के राजा शेषनाग के दर्शन की अभिलाषा पैदा हो उठी। अगले दिन उन्होंने देवी द्वारा दिए दोनों बेतालों को याद किया। पलक झपकते ही दोनों बेताल उनके सामने उपस्थित होकर बोले-'क्या आज्ञा है महराज आपने हमें क्यॊं याद किया?"

विक्रमादित्य ने उनसे पूछ-"क्या तुम मुझे पाताल के स्वामी शेषनाग के निवास स्थान पर ले जा सकते हो? मैं पाताल लोग के राजा शेषनाग के दर्शन करना चाहता हूँ।

विक्रमादित्य की आज्ञा पाकर बेतालों ने उन्हें पाताल-लोक पहुंचा दिया। वहां की सुन्दरता देखकर विक्रमादित्य चकित रह गए। शेषनाग का महल सोने का था। महल में जगह-जगह मणियाँ जड़ी हुई थीं। ऎसा लग रहा था, मानों हजारों सूर्य एक साथ चमक रहे हों। महल के दरवाजे पर कमल की बनी हुई वन्दनवारें झूल रही थी। कमलों से सुगंध उड़ रही थी। महल के द्वार पर पहुंच कर विक्रमादित्य ने द्वारपाल से कहा-"मैं भूलोक से आया हूँ और शेषनाग के दर्शन करना चाहता हूँ।

द्वारपाल ने महल के अन्दर जाकर अपने स्वामी शेषनाग को सूचना देते हुए कहा-"महाराज, भूलोक से कोई मनुष्य आया है और आपके दर्शन करना चाहता है।" यह सुनकर शेषनाग को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने मन ही मन सोचा, भूलोक से कोई मानव सशरीर यहां कैसे आ सकता है। वह कोई साधारण मानव नहीं हो सकता। यह सोचकर वे अपने महल से बाहर आ गए। विक्रमादित्य ने साक्षात् शेषनाग को अपने सामने खड़े देख उन्हें प्रणाम किया और कहा-भगवन्, आपका दर्शन पाकर मेरा जीवन सफल हो गया।'

शेषनाग विक्रमादित्य को सम्मान के साथ अपने महल के अन्दर ले गए और उनका आदर-सत्कार करके बोले-'हे मानव तुम कौन हो? तुम्हारी वेशभूषा से प्रतीत होता है कि तुम कहीं के राजा हो। मुझे अपना परिचय दो।'

विक्रमादि ने अपना परिचय देते हुए कहा-"भगवन, मैं भूलोक में बसी उज्जैन नगरी का राजा विक्रमादित्य हूँ। मैंने आपकी बड़ी प्रशंसा सुनी इसलिए आपके दर्शन करने के लिए यहां आया हूँ।" विक्रमादित्य बहुत दिनों तक शेषनाग के मेहमान रहे। फिर उन्होंने अपने राज्य लौटने का विचार किया। उन्होंनॆ शेषनाग से कहा-"भगवन अब मुझे जाने की इजाजत दीजिए।'

शेषनाग बोले-"आपने पाताल लोक का अतिथि बन कर मेरा सम्मान बढाया है। उसके लिए मैं आपको यूं ही खाली नहीं जाने दूंगा।' यह कहकर उन्होंने चार मणि विक्रमादित्य को देते हुए कहा-"ये चार मणि चार गुणों वाली और चार रंगों वाली हैं-लाल, पीला, नारंगी और काला। लाल मणि की यह खासियत है कि आप जितना भी धन चाहो वह आपको देगी। पीली मणि की यह विशेषता है कि आप उससे जितना भी वस्त्राभूषण मांगोगे उतना वह आपको देगी। नारंगी मणि की यह विशेषता है कि आप उससे हाथी, घोड़े, पालकी, और सजावट की जो भी चींजे मांगोगे वह आपको देगी। चौथी मणि काले से आप जितने भी धर्म कार्य चाहें वह आपको प्राप्त कराएगी।'

शेषनाग से विदा लेकर विक्रमादित्य चारों मणियों के साथ वहां से चल पड़ॆ। नगर के बाहर पहुंचकर उन्होंने अपने सेवक बेतालों को याद किया। दोनों बेताल शीघ्र ही उनके सामने उपस्थित हो गए। उनकी आज्ञा से वे उन्हें उज्जैन नगरी की सीमा पर छोड़कर अदृश्य हो गए। विक्रमादित्य वहां से पैदल ही नगर की ओर बढने लगे। वे अभी कुछ ही दूर पहुंचे थे कि उन्हें एक निर्धन ब्राह्मण सामने से आता हुआ दिखा। ब्राह्मण ने उन्हें प्रणाम किया और पूछा-"महाराज आज आप बड़े प्रसन्न नजर आ रहे हैं, लगता है आपको कहीं से कोई विशेष प्रसन्नता मिली है।'

ब्राह्मण की बात सुनकर विक्रमादित्य बोले-"आप ठीक कहते हैं ब्राह्मण देवता! आज मैं बहुत प्रसन्न हूँ, क्योंकि आज मैं पाताल लोक के राजा शेषनाग के दर्शन करके आ रहा हूँ।'

यह सुनकर ब्राह्मण बोला-"तो आप वहां से कुछ उपहार भी लाए होंगे?"

विक्रमादित्य ने कहा-हां लाया तो हूँ। यह कहकर उन्होंने ब्राह्मण को चारों रत्न दिखा दिए। रत्न देख कर ब्राह्मण बोला-"महाराज, आपके कोषागार में ऎसे बहुमूल्य रत्न न जाने कितने भरे होंगे। यदि लाना ही था तो वहां से कोई दुर्लभ वस्तु लाते जो भूलोक पर नहीं मिलती हो।

विक्रमादित्य बोले-ब्राह्मण देव, ये कोई साधारण रत्न नहीं हैं। यह कहकर उन्होंने ब्राह्मण का उन चारों रत्नों की विशेषता बता दी। यह सुनकर ब्राह्मण बोला-"आप बड़े भाग्यशाली हैं महाराज कि जो आप देवताओं से भी उपहार पाते हैं लेकिन राजा के उपकार, अपकार में उसकी जनता का भी अधिकार होता है।

ब्राह्मण की बात सुनकर विक्रमादित्य उनकी बात का आशय समझ गए। उन्होंने कहा-ब्राह्माण देव, मैं उपहार स्वरुप मिले इन रत्नों में से जो भी रत्न आपको चाहिए मैं आपको देता हूँ। इनमें से आपको जो भी रत्न चाहिए उठा लीजिए।'

ब्राह्मण मन ही मन सोचने लगा कौन सा रत्न लूं? वह कुछ देर तक सोच-विचार करता रहा लेकिन किसी निर्णय पर नहीं पहुंच सका तो उसने विक्रमादित्य से कहा-" महाराज मैं निर्णय नहीं ले पा रहा हूँ कि इनमें से कौन सा रत्न लूं। आप मुझे थोड़ा समय दें, मैं अपनी पत्नी व बच्चों से सलाह कर आऊं, तब रत्न उठाऊंगा।'

ब्राह्मण की बात सुनकर विक्रमादित्य ने उसकी बात मान ली और वहीं रुक कर उसकी प्रतीक्षा करने लगे। ब्राह्मण ने घर पहुंचकर अपनी पत्नी, बेटॆ और बेटी को उन रत्नों के गुण बताए। पत्नी ने कहा तुम्हें वहींं रत्न लेना चाहिए, जो मनचाहा धन दे सकती है। लड़के ने कहा-'तुम्हें वह, मणि लेनी चाहिए जो हाथी घोड़े दे सकते हैं। लड़की ने कहा-"नहीं आपको वह मणि लेनी चाहिए, जो वस्त्राभूषण दे सकती है।

यह सुनकर ब्राह्मण को तीनों की बात ठीक नहीं लगी। उसने कहा-'मुझे तुम तीनों में से किसी की भी बात ठीक नहीं लगी। मैं तो वह मणि लूंगा, जो भगवान की भक्ति देती है। भक्ति से बढकर कीमती चीज कोई दूसरी नहीं है। जहां भगवान की भक्ति रहती हैं वहां भगवान रहते हैं और जहां भगवान रहते हैं वहां सब कुछ रहता है।' यह कहकर ब्राह्मण वहां से वापस लौट कर विक्रमादित्य के पास आया और बोला-'महाराज, मेरे परिवार में मेरे अलावा तीन लोग हैं, मेरी पत्नी मेरा बेटा और बेटी लेकिन उन तीनों को अलग-अलग मणि चाहिए।' यह कहकर उसने जिसको जो मणि चाहिए थी, विक्रमादित्य को बता दी।

यह सुनकर विक्रमादित्य मुस्कुराकर बोले-'उनका कहना ठीक है। लेकिन आप बताएं आपको कौन-सा मणि चाहिए?'

ब्राह्मण बोला-'महाराज, अगर आप देना चाहते हैं तो मुझे वह मणि दीजिए, जो भगवान की भक्ति देती है।'

उस निर्धन ब्राह्मण की बात सुनकर विक्रमादित्य आश्चर्यचकित हो उठे। वे सोचने लगे, यह गरीब ब्राह्मण कितना अद्भुत है। इसे जरूरत तो धन की है, लेकिन यह मांग रहा है वह मणि जो भगवान की भक्ति देती है। यह सोचकर उन्होंने ब्राह्मण से कहा-"ब्राह्मण देव, आप भक्ति देने वाली मणि क्यों मांग रहे हो?

ब्राह्मण बोला-'महाराज, धन नाशवान है। नाशवान चीज को लेकर मैं क्या करुंगा? भक्ति में प्रेम होता है, श्रद्धा होती है, विश्वास होता है इसलिए मैंने यह मणि मांगी है।

ब्राह्मण की ऎसी बात सुनकर विक्रमादित्य प्रसन्न हो उठे और उन्होंने चारों मणि ब्राह्मण को दे दी। यह कथा सुनाकर पुतली बोली- "सुना तुमने राजा भोज, ऎसे थे हमारे राजा विक्रमादित्य। उन्होंने चारों रत्नों को ब्राह्मण को दे दिए क्या कभी तुमने ऎसा दान किया है?" यह कहकर पुतली अदृश्य हो गई।

राजा भोज के पास पुतली के इस प्रश्न का कोई जवाब नहीं था, इसलिए वह दुखी मन से अपने कक्ष में वापस लौट आए।