जब लौ शरण न सतगुरु जइहो ।
तब लौ हे मन चौरासी में,
घुमरि घुमरि फिर अईहो ।
कोटि जनम जब भटका खाया,
तब यह नर तन दुर्लभ पाया,
सोई फिर वृथा नसइहो ।
जब लौ शरण न सतगुरु जइहो ।
काल कठोर दया नहीं लावे,
नाना विधि तोहि नाच नचावे,
तिरगुन फांस फंसइहो ।
जब लौ शरण न सतगुरु जइहो ।
जग में बन्धन अगणित डारा,
सब जीव फिरें बंधे तेहि लारा,
क्यों कर तुम बच पइहो ।
जब लौ शरण न सतगुरु जइहो ।
याते सतगुरु शरणा ताको,
सुरत शब्द मत ले घट झांको,
नहिं तो सिर धुन धुन पछतइहो ।
जब लौ शरण न सतगुरु जइहो ।
जाके शरण मिटे भव तापा,
चिर सुख मिले रहे नहीं आपा,
तेहि बिन नाम रतन कहं पइहो ।
जब लौ शरण न सतगुरु जइहो ।
अलख अगम गुरुदेव अनामी,
सन्तन के प्रिय सतगुरु स्वामी,
कस तिन माहीं समइहो ।
जब लौ शरण न सतगुरु जइहो ।
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